जानिए, क्यों मनाया जाता है सैर या सायर का पर्व और क्या है इसका महत्व
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जानिए, क्यों मनाया जाता है सैर या सायर का पर्व और क्या है इसका महत्व

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जानिए, क्यों मनाया जाता है सैर या सायर का पर्व और क्या है इसका महत्व


हिमाचल प्रदेश अपनी समृद्ध संस्कृति, विभिन्न मेले, उत्सव और त्योहारों के लिए प्रसिद्ध है। ये सारे त्योहार जहां हम सबको हमारे अपनो से जोड़े रखने का काम करते हैं, वहीं हिमाचली जनता के लिए एक रोजगार का काम भी कर रहे हैं। हिमाचल में यूं तो साल भर बहुत से त्योहार मनाए जाते हैं और लगभग हर महीने की संक्रांति यानी ‘सज्जी या साजा’ को एक विशेष नाम से जाना जाता है और त्योहार के तौर पर मनाया जाता है। क्रमानुसार भारतीय देशी महीनों के बदलने और नए महीने के शुरू होने के प्रथम दिन को संक्रांति कहा जाता है।

हिमाचल प्रदेश में लगभग हर देशी महीने में कोई न कोई उत्सव या त्योहार मनाया जाता है। भादों का महीना समाप्त होते ही आश्विन महीना शुरू होता है। इस संक्रांति को जो उत्सव पड़ता है, वह है सैर यानी सायर उत्सव। सितंबर महीने यानी आश्विन महीने की संक्रांति को कांगड़ा, मंडी, हमीरपुर, बिलासपुर और सोलन सहित प्रदेश के अन्य कुछ जिलों में भी सैर या सायर का त्योहार काफी धूमधाम से मनाया जाता है। वास्तव में यह त्योहार वर्षा ऋतु के खत्म होने और शरद ऋतु के आगाज के उपलक्ष्य में मनाया जाता है।


इस समय खरीफ की फसलें पक जाती हैं और काटने का समय होता है, तो भगवान को धन्यवाद करने के लिए यह त्योहार मनाते हैं। सैर के बाद ही खरीफ की फसलों की कटाई की जाती है। इस दिन ‘सैरी माता’ को फसलों का अंश और मौसमी फल चढ़ाए जाते हैं और साथ ही राखियां भी उतार कर सैरी माता को चढ़ाई जाती हैं। सैर मनाने का तरीका हर क्षेत्र का अलग-अलग है। जहां एक तरफ कुल्लू, मंडी, कांगड़ा आदि क्षेत्रों में सैर एक पारिवारिक त्योहार के रूप में मनाई जाती है, वहीं शिमला और सोलन में इसे सामुहिक तौर पर मनाया जाता है।


इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं और लोग इनमें उत्साह से शामिल होते हैं। ढोल-नगाड़े बजाए जाते हैं और अन्य लोकगीतों और लोकनृत्यों का आयोजन किया जाता है। शिमला के मशोबरा और सोलन के अर्की में ‘सांडों’ का युद्ध’ कराया जाता है। यह लगभग स्पेन, पुर्तगाल और लैटिन अमरीका में होने वाले युद्ध की तरह ही होते हैं। लोग मेलों में बरतन, कपड़े खरीदते हैं। लोग अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों को मिठाई और अखरोट बांटते हैं। घरों में अनेकों पकवान भी बनते हैं। सोलन के अर्की में सायर का जिला स्तरीय मेला होता है। कुल्लू में सैर को सैरी साजा के रूप में मनाया जाता है। सैर के पिछली रात को दावत दी जाती है।


अगले दिन कुल देवता की पूजा की जाती है, जिसके लिए सुबह से ही तैयारी होना शुरू हो जाती है। साफ सफाई करने के बाद नहा धोकर हलवा तैयार किया जाता है और सबमें बांटा जाता है। यह त्योहार रिश्तेदारों से मिलने जुलने और उनके घर जाने का होता है। एक-दूसरे को दुर्वा, जिसे स्थानीय भाषा में ‘जूब कहते हैं, देकर उत्सव की बधाई दी जाती है। लोगों का मानना है कि इस दिन देवता स्वर्ग से धरती पर आते हैं और लोग ढोल-नगाड़ों के साथ उनका स्वागत करते हैं। वैसे भी हिमाचल में हर गांव का अपना एक देवी-देवता होता है, तो लोग इस दिन उनकी पूजा और स्वागत करते हैं। मंडी में भी सैर हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है। मंडी में इस दिन अखरोट खरीदे और बांटे जाते हैं। मंडी में सड़क किनारे जगह-जगह आप अखरोट बेचने वालों को देख सकते हैं। सायर के त्योहार के दौरान अखरोट खेलने की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी है।


गली चौराहे या फिर घर के आंगन के कोने पर इस खेल को खेला जाता है। इसमें खिलाड़ी जमीन पर बिखरे अखरोटों को दूर से निशाना लगाते हैं। अगर निशाना सही लगे तो अखरोट निशाना लगाने वाले के होते हैं। इस तरह यह खेल बच्चे, बूढ़े और नौजवानों में खासा लोकप्रिय है। इसके अलावा कचौरी, सिड्डू, चिलड़ू, गुलगुले जैसे पकवान भी बनाए जाते हैं। बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद लेने की भी परंपरा है। इसे स्थानीय बोली में दुर्व देना कहा जाता है। इसके लिए दुर्व देने वाला व्यक्ति अपने हाथ में पांच या सात अखरोट और दूर्व लेता है। जिसे बड़े बुजुर्गों के हाथ में देकर उनके पांव छूता है। वहीं बड़े बुजुर्ग भी दूर्व अपने कान में लगाकर आशीर्वाद देते हैं। अगर कोई सायर के पर्व पर बड़े बुजुर्गों को दूर्वा न दे, तो इसका बुरा माना जाता है। यहां तक कि छोटे मोटे मनमुटाव भी दुर्व देने से मिट जाते हैं।


कांगड़ा, हमीरपुर और बिलासपुर में भी सैर मनाने का अलग प्रचलन है। सैर की पूजा के लिए एक दिन पहले से ही तैयारी शुरू कर दी जाती है और पूजा की थाली रात को ही सजा दी जाती है। हर सीजन की फसलों का अंश थाली में सजाया जाता है। उसके लिए गेहूं को थाली में फैला दिया जाता है और उसके ऊपर मक्की, धान की बालियां, खीरा, अमरूद, गलगल आदि ऋतु फल रखे जाते हैं। हर फल के साथ उसके पत्ते भी पूजा में रखना शुभ माना जाता है। पहले समय में सैर वाले दिन गांव का नाई सुबह होने से पहले हर घर में सैरी माता की मूर्ति के साथ जाता था और लोग उसे अनाज, पैसे और सुहागी चढ़ावे के रूप में देते थे।


हालांकि अब त्योहारों और उत्सवों को उस रूप में नहीं मनाया जाता है, जिस तरह से पुराने लोग मनाते थे, परंतु फिर भी गांवों में अभी भी लोगों ने बहुत हद तक परंपराओं को संजोकर रखा हुआ है। अब लोग सैरी माता की जगह गणेशजी की मूर्ति की पूजा करते हैं और अब नाई लोगों के घर नहीं जाते हैं। दिन में छः-सात पकवान बनाए जाते हैं, जिनमें पतरोड़े, पकोड़ू और भटूरू जरूर होते हैं। इसके अलावा खीर, गुलगुले, चिलड़ू आदि पकवान भी बनाए जाते हैं। ये पकवान एक थाली में सजाकर आसपड़ोस और रिश्तेदारों में बांटे जाते हैं और उनके घर से भी पकवान लिए जाते हैं। अगले दिन धान के खेतों में गलगल फेंके जाते हैं और अगले वर्ष अच्छी फसल के लिए प्रार्थना की जाती है।

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